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अष्टम के नाम पर सड़क, गिट्‌टी-बालू ढो रहे माता-पिता: इंडियन फुटबॉल टीम की कैप्टन ने मांड़-भात खाकर की थी प्रैक्टिस, आज बनीं गौरव

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नई दिल्ली2 मिनट पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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अष्टम के नाम पर सड़क, गिट्‌टी-बालू ढो रहे माता-पिता: इंडियन फुटबॉल टीम की कैप्टन ने मांड़-भात खाकर की थी प्रैक्टिस, आज बनीं गौरव

भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में आज अंडर-17 वुमन फुटबॉल वर्ल्ड कप का पहला मैच खेला जाना है। भारतीय टीम का नेतृत्व झारखंड के गुमला जिले की अष्टम उरांव कर रही हैं। जब वह भारतीय महिला टीम की कैप्टन चुनी गई तो उनके गांव बनारी गोरा टोली में जश्न बनाया गया।

अष्टम के U17 इंडियन टीम की कैप्टन बनने पर गांव में नई सड़क बनाई जा रही है। पहले अष्टमके घर तक सड़क नहीं थी। लेकिन अष्टम को प्रसिद्धि मिलने पर जिला प्रशासन की ओर से सड़क बनाई जा रही है। पिछले 45 दिनों से काम चल रहा है।

इसमें गांव के लोग भी मजदूरी कर रहे। अष्टम​​​​​​​ की मां तारा देवी और पिता हीरा लाल उरांव भी बेटी के नाम पर बनायी जा रही सड़क में मजदूर कर रहे हैं। उन्हें एक दिन के 250 रुपए मिलते हैं। सिर पर स्टोन चिप्स की टोकरी ढोते अष्टम​​​​​​​ के माता-पिता को देखा जा सकता है।

अष्टम​​​​​​​ के पिता हीरा लाल उरांव ने बताया कि मजदूरी नहीं करेंगे तो खाएंगे क्या। बेटी ने कड़ी मेहनत के दम पर फुटबॉल टीम में जगह बनाई है। लेकिन इतने पैसे नहीं हैं कि बिना मजदूरी के रहा जा सके।

भारतीय महिला फुटबॉल टीम के हेड कोच थॉमस डेनरबी और कैप्टन अष्टम उरांव ने सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैच को लेकर जानकारी दी।

भारतीय महिला फुटबॉल टीम के हेड कोच थॉमस डेनरबी और कैप्टन अष्टम उरांव ने सोमवार को प्रेस कॉन्फ्रेंस में मैच को लेकर जानकारी दी।

माड़-भात खिलाकर अष्टम​​​​​​​ को बड़ा किया

अष्टम की मां तारा देवी कहती हैं कि थोड़ी सी जमीन है जिस पर साल में एक बार धान की खेती होती है। थोड़ी बहुत साग-सब्जी होती है। परिवार में सभी का पेट भरना ही बड़ी जिम्मेदारी थी। किसी तरह अष्टम​​​​​​​ को माड़-भात खिलाकर पाला है।

अष्टम कुल पांच भाई-बहनें हैं। ‌उसकी बड़ी बहन सुमिना उरांव डिस्कस थ्रो की नेशनल एथलीट हैं। अंशु उरांव ग्रेजुएशन कर रही हैं। सबसे छोटी बहन अलका इंदवार झारखंड U16 फुटबॉल टीम की खिलाड़ी हैं। जबकि भाई पढ़ाई कर रहा है।

पिता बोले-बेटी के फुटबॉल खेलने पर लोग मजाक उड़ाते थे

हीरा लाल उरांव कहते हैं, ‘बेटी को 8-10 साल की उम्र से ही फुटबॉल पसंद था। वह अपनी सहेलियों के साथ घर के बाहर, मैदान या खेत में फुटबॉल खेलती थी। जब जहां जगह मिले वह फुटबॉल खेलती थी। बेटी को फुटबॉल खेलता देख लोग ताने देते थे कि खेल की जगह इसे पढ़ाते तो आगे बढ़ती। लेकिन मैंने उसे कभी खेलने से रोका नहीं।’

करियर बनाने के लिए हजारीबाग डे बोर्डिंग भेजा

हीरा लाल बताते हैं कि फुटबॉल के प्रति जुनून को देख बेटी को हजारीबाग जिले के सेंट कोलंबस कोलेजिएट भेजा। वहां वह पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल खेलती थी।

झारखंड फुटबॉल टीम के कोच एस प्रधान बताते हैं कि जब अष्टम​​​​​​​ 14 साल की थी, तब उससे पहली बार मिला था। एक मैच में उसका परफॉर्मेंस देखा। तब वह मिड फील्डर थी। उसका गेम अच्छा था। कड़ी मेहनत कर रही थी। मैंने उसे कहा कि डिफेंडर के रूप में खेलना चाहिए। उसे मैंने एक महीने तक कोचिंग दी। साल 2018 में नेशनल टूर्नामेंट के लिए उसे लेकर कोल्हापुर गया। वहां उसका प्रदर्शन अच्छा रहा।

अगले ही साल ट्रायल में वह भारतीय टीम के लिए सिलेक्ट हो गई। वहां से वह नेशनल कैंप के लिए गई। जब भारतीय टीम के कोच ने अष्टम​​​​​​​ के खेल को देखा तो उसे साइड बैक में खेलाना शुरू किया। आज भी वह साइड बैक खेलती है।

एस प्रधान कहते हैं, अष्टम​​​​​​​ कोच की मेंटिलिटी को समझती है। कोच जैसा गेम चाहते हैं वैसा गेम वो खेलती है। फर्स्ट लेवल खेलने की वजह से उसे भारतीय टीम को लीड करने का मौका मिला है।

भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में भारत का पहला मैच यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका से है। मैच की पूर्व संध्या पर भारतीय टीम।

भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम में भारत का पहला मैच यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका से है। मैच की पूर्व संध्या पर भारतीय टीम।

झारखंड की छह लड़कियां हैं टीम में

अष्टम के अलावा, सुधा अंकिता तिर्की, अंजलि मुंडा, पूर्णिमा कुमारी, नीतू लिंडा और अनीता कुमारी भी झारखंड से हैं जिन्हें भारतीय टीम में जगह मिली है। ये सभी लड़कियां ऐसे घरों से आती हैं जिनके माता-पिता दिहाड़ी मजदूर हैं या खेती-किसानी करते हैं।

एस प्रधान ने बताया कि जिन छह लड़कियों का चयन झारखंड से हुआ है वे बहुत साधारण बैकग्राउंड से हैं। उनके पेरेंट्स किसी सरकारी सेवा में नहीं हैं। उनके पास थोड़ा बहुत खेत है जहां वे खेती करते हैं। लेकिन जब खेतों में काम नहीं होता तो दिहाड़ी मजदूरी भी करते हैं।

उनके पास किसी तरह की कोई सुविधा नहीं है न ही सरकार की ओर से कोई मदद मिलती है। खेल के लिए न तो किट है न जूते। अष्टम​​​​​​​ उरांव जिस गांव की है वहां न तो ठीक से बिजली आती है और न ही इंटरनेट काम करता है।

अनिता ने 9 साल की उम्र से फुटबॉल खेलना शुरू किया

रांची जिले के ओरमांझी प्रखंड के चारी-होचर गांव की रहने वाली अनिता कुमारी U17 भारतीय टीम में फॉरवर्ड हैं। पांच बहनों में चौथे स्थान पर रही अनिता ने बचपन से गरीबी देखी है। उनकी मां दिहाड़ी मजदूर हैं। दो वक्त का खाना मिल जाए, यह उनके लिए चुनौती रही है। अनिता की मां कहती हैं कि पांचों बेटियों को किसी तरह पढ़ाया। अनिता को फुटबॉल पसंद था। लेकिन इसके लिए जो डाइट चाहिए वह कभी दे नहीं सकी। माड़-भात खाकर ही अनिता ने फुटबॉल खेला है। उसके पास न तो किट थे और न ही दूसरी सुविधाएं।

वह बताती हैं कि अनिता बचपन से ही लड़कों को फुटबॉल खेलते देखती थी। तब वह कहती कि पापा तो कुछ करते नहीं, मैं अपनी मां की मदद करूंगी, पैसै कमाऊंगी।

मैं कहती कि अपने सपने पूरे करो। कौन क्या कहता है मत सोचो। एक बार देश के लिए खेल लोगी तो सभी लोग जान जाएंगे कि करियर किस तरह बनाया है।

स्पेन में किया शानदार प्रदर्शन

भुवनेश्वर में वर्ल्ड कप शुरू होने से पहले भारतीय टीम स्पेन के टूर पर थी। वहां भारतीय टीम ने WSS बार्सिलोना के खिलाफ 17 गोल किए, जिसमें अकेले अनिता ने पांच गोल किए थे।

नीतू लिंडा को बचपन से ही फुटबॉल से लगाव था। जब भी मौका मिलता नीतू फुटबॉल लेकर मैदान में उतर जाती। जिम में पसीना बहाती नीतू।

नीतू लिंडा को बचपन से ही फुटबॉल से लगाव था। जब भी मौका मिलता नीतू फुटबॉल लेकर मैदान में उतर जाती। जिम में पसीना बहाती नीतू।

कद छोटा पर गेम में कोई सानी नहीं

नीतू लिंडा झारखंड की राजधानी रांची की रहने वाली हैं। उसने रांची के बरियातू स्थित डे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ाई के साथ-साथ फुटबॉल भी खेला। उसने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया में भी प्रशिक्षण लिया है।

झारखंड फुटबॉल टीम के कोच एस प्रधान बताते हैं कि नीतू लिंडा मिड फील्ड की धाकड़ प्लेयर रही है। कद छोटा है लेकिन गेम में वह बहुत बहादुर है।

छह साल की उम्र में उसने शौकिया फुटबॉल खेलना शुरू किया। तब वह स्कूल में कबड्‌डी, खो-खो खेलती थी, लेकिन एक दोस्त ने उसे फुटबॉल को गंभीरता से खेलने के लिए कहा। धीरे-धीरे ये पैशन बनता चला गया।

न किट, न जर्सी पर गेम नहीं छोड़ा

झारखंड फुटबॉल एसोसिएशन के सेक्रेटरी गुलाम रब्बानी बताते हैं कि नीतू बेहद गरीब परिवार से है। फुटबॉल खेलने के लिए उसके पास न तो जूते थे और न ही कपड़े। जब उसकी मां बीमार पड़ी तो उसने घर का सारा काम किया, भाई के काम में मदद की, पूरे परिवार के लिए खाना बनाया बावजूद कभी फुटबॉल खेलना नहीं छोड़ा।

भारत को ग्रुप 'ए' में अमेरिका, मोरक्को और ब्राजील के साथ रखा गया है। भारतीय टीम 11 अक्टूबर को अमेरिका, 14 को मोरक्को और 17 अक्टूबर को ब्राजील के खिलाफ उतरेगी।

भारत को ग्रुप ‘ए’ में अमेरिका, मोरक्को और ब्राजील के साथ रखा गया है। भारतीय टीम 11 अक्टूबर को अमेरिका, 14 को मोरक्को और 17 अक्टूबर को ब्राजील के खिलाफ उतरेगी।

सुविधाएं नहीं थीं, पर अंजलि ने फुटबॉल नहीं छोड़ा

रांची के कांके नवा सोसो की रहनेवाली अंजलि मुंडा ने स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (साई) से फुटबॉल में ट्रेनिंग ली है। एस प्रधान बताते हैं कि अंजलि पहले डिफेंडर के रूप में खेलती थी, लेकिन मैंने उसे गोलकीपर के रूप में खेलने को कहा। आज वह U17 भारतीय टीम में गोलकीपर है।

तीन भाई-बहनों में सबसे बड़ी अंजलि ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई की। उसके पिता किसान हैं। पैसों की कमी हमेशा रही, पर फुटबॉल की ट्रेनिंग में इसे कभी आड़े नहीं आने दिया।

उबड़-खाबड़ मैदान में ही खेला फुटबॉल

पूर्णिमा कुमारी झारखंड के सिमडेगा जिले के ठेठाईटांगर ब्लॉक के जामबाहर गांव की रहने वाली है। उसने आवासीय बालिका फुटबॉल प्रशिक्षण केंद्र हजारीबाग से ट्रेनिंग ली है।

झारखंड फुटबॉल एसोसिएशन के सचिव गुलाम रब्बानी बताते हैं कि पूर्णिमा के गांव में ढंग से फुटबॉल का एक मैदान तक नहीं है। वह उबड़-खाबड़ मैदान में ही नंगे पांव फुटबॉल खेलती थी। फुटबॉल के प्रति उसकी रुचि ने ही उसे हजारीबाग फुटबॉल प्रशिक्षण केंद्र तक पहुंचाया। आज वह U 17 में भारतीय टीम में है।

अस्तम की ही तरह सुधा अंकिता तिर्की भी गुमला जिले की रहने वाली हैं। बचपन में पिता के अलग होने के बाद सुधा के परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।

अस्तम की ही तरह सुधा अंकिता तिर्की भी गुमला जिले की रहने वाली हैं। बचपन में पिता के अलग होने के बाद सुधा के परिवार को गांव छोड़ना पड़ा।

फुटबॉल का मैदान ही मेरे लिए सब कुछ है

सुधा अंकिता तिर्की झारखंड के गुमला जिले की रहनेवाली हैं। उसकी मां गांव के ही स्कूल में स्वीपर हैं जबकि छोटी बहन घरों में झाड़ू-पोछा करती है। सुधा ने सेंट पैट्रिक स्कूल से पढ़ाई की है। गुलाम रब्बानी बताते हैं कि सुधा जब तीन साल की थी, तभी उसके माता-पिता अलग हो गए थे। ऐसे में सुधा की मां को अकेले ही घर संभालना पड़ा। तंगहाली के बावजूद बेटी को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित किया।

लड़कों के साथ खेला फुटबॉल

सुधा 12 साल की उम्र से फुटबॉल खेल रही है। गांव में लड़के फुटबॉल खेलते थे, लड़कियां नहीं। लेकिन सुधा को फुटबॉल से लगाव था, तब उसने लड़कों के साथ ही फुटबॉल खेलना शुरू किया।

गांव के टूर्नामेंट से निकलती हैं लड़कियां

एस प्रधान बताते हैं कि झारखंड के गुमला, खूंटी, रांची, सिमडेगा जिला से फुटबॉल की खिलाड़ी निकली हैं। दरअसल, गांवों में लोकल लेवल पर कई टूर्नामेंट होते हैं जिनमें ये लड़कियां जुनून के साथ खेलती हैं। युवा (YUVA) जैसी संस्था इन्हें प्रमोट भी करती हैं। इन लड़कियों के खेल को देखने हम जाते हैं। जब इनके गेम को देखते हैं तो इन्हें ट्रेनिंग देना शुरू करते हैं।

प्राइज मनी से लड़कियों को मिल जाती है पॉकेट मनी

एस प्रधान कहते हैं कि जिलों में कई लोग टीम चलाते हैं। टूर्नामेंट होते हैं। इनमें जो प्राइज मनी होती है उससे लड़कियों की पॉकेट मनी बन जाती है। किसी टूर्नामेंट में 20 हजार तो किसी किसी में एक लाख रुपए तक प्राइज मनी होती है।

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