जिन्होंने तंगहाली में हॉकी को जिया: रानी को झाेटा-बुग्गी में ग्राउंड तक छोड़ने जाते थे पापा, नवनीत को घी-दूध खिलाने के लिए पिता बने थे किसान
सोनीपत31 मिनट पहलेलेखक: अनिल बंसल
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महिला हॉकी टीम का मैच आज दोपहर बाद 3 बजे शुरू होगा। मंगलवार को जीत के लिए पूजा-पाठ करते खिलाड़ी नेहा के परिजन।
- ओलिंपिक- भारतीय महिला हॉकी टीम में कप्तान-उपकप्तान समेत 9 और पुरुष टीम में 2 खिलाड़ी हमारे, महिला टीम का सेमीफाइनल आज
- वितरीत हालात में भी खिलाड़ियों ने लक्ष्य पर जमाए रखीं नजरें
किसी की मां ने जूते की फैक्ट्री में मजदूरी की तो किसी के पिता दुकान पर हेल्पर रहे। किसी खिलाड़ी के पास हॉकी स्टिक तक के पैसे नहीं थे तो कोई ग्रांउड में पहुंचने के लिए पैदल तो कोई झोटा-बुगी में पहुंचती। वितरीत हालात के बीच भी अगर सबसे सकारात्मक कोई चीज थी तो वह खिलाड़ियों का कभी हार नहीं मानते हुए लक्ष्य हासिल करने तक खेल के प्रति समर्पण भावना से मेहनत करना। उसी का सार्थक परिणाम आज दुनिया देख रही है। भारतीय हॉकी का इतिहास बदला जा चुका है, जो दशकों से नहीं हुआ, वह इस बार हुआ है।
भारतीय हॉकी टीम ओलिंपिक में पदक जीतने की दहलीज पर है। बता दें कि भारतीय पुरुष हॉकी टीम में 2 और महिला टीम में 9 खिलाड़ी हरियाणा के हैं, जिनमें कप्तान और उपकप्तान भी हरियाणा से हैं। सबकी नजरें आज होने वाले महिला टीम के सेमीफाइनल पर है। खिलाड़ियों के परिजन जीत के लिए पूजा-पाठ कर रहे हैं।
कुपोषित बता खिलाने से कर दिया था मना
रानी रामपाल: बेहद तंगहाली में बचपन बीता। खेलना ताे दूर दो वक्त की रोटी भी ढंग से नहीं मिल पाती थी। हॉकी खिलाड़ी बनने का सोचा तो कोच ने कुपोषित बताते हुए खिलाने से मना कर दिया था। बमुश्किल खेल शुरू किया तो स्टिक व ड्रेस नहीं थी। पिता रामपाल ने मजदूरी करके आगे बढ़ाया। समाज के तानों के बीच झोटा-बुग्गी पर ग्राउंड छोड़ने जाते थे। कोच बलदेव सिंह ने रानी को बेटी मानते हुए व्यवस्था संभाली।
बेटी के लिए बदला पेशा
नवनीत कौर: बेटी को खिलाड़ी बनाने का मन में आया तो खान-पान में मिलावट बड़ी समस्या थी। पिता बूटा सिंह बिजली की दुकान छोड़कर किसान बन गए। नवनीत आज अनुभवी खिलाड़ियों में से एक हैं। 2013 में विश्व जूनियर टीम में कांस्य पदक जीत चुकी हैं।
मजबूत संकल्प से जीती
निशा वारसी: 5 दशक पहले यूपी से सोनीपत आए शोहराब मोहम्मद के लिए बेटी को हॉकी खिलाना आसान न था। पिता को दर्जी का काम करते 2016 में लकवा मार गया। बेटी का खेल नहीं छूटे, इसलिए मां मेहरून ने खुद फैक्ट्री में काम कर बेटी को बुलंदियों तक पहुंचाया।
मां ने घरों में काम कर बेटी को बनाया स्टार
नेहा गोयल: उन्होंने सिर्फ इसलिए हॉकी शुरू की, ताकि घर के तंगहाली भरे हालात को ठीक कर सके, क्योंकि घर में हालात अच्छे नहीं थे। हॉकी शुरू की तब स्टिक तो छोड़िए, जूते तक नहीं थे। यह कहकर ही शुरू करवाई थी कि खेलोगे तो जूते मिलेंगे। घर में पिता का साथ नहीं होने से मां सावित्री ने जूते की फैक्ट्री में काम करने से लेकर दूसरों के घरों में भी काम किया, लेकिन बेटी के खेल को कभी रुकने नहीं दिया।
दादा की ख्वाहिश थी, पाेती ओलिंपिक खेले
सविता पूनिया: भारतीय महिला हॉकी टीम की दीवार सविता पूनिया को खेल में लेकर आने वाले उनके दादा है, उनकी ख्वाहिश थी कि बेटी ओलिंपिक खेले, क्योंकि किसी ने ताना मारा था कि क्या छौरिया भी स्कर्ट पहनकर खेला करै है, तब दादा ने कहा था- न केवल खिलवाऊंगा, बल्कि यह लड़कों पर भारी पड़ेगी। यह ‘दीवार’ ड्रेग फ्लिकर खिलाड़ियों के आक्रमण को झेलकर तैयार हुई है।
तंगी में खेल नहीं छोड़ा
नवजोत कौर: शाहबाद में हॉकी में विकसित होती खेल संस्कृति से प्रभावित होकर हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया। पिता सतनाम दुकानदार हैं। आर्थिक तंगी कई बार समस्या बनी, लेकिन खेल को प्रभावित नहीं कर पाई। नवजोत लगातार दूसरा ओलिंपिक खेल रही हैं।
पिता की ख्वाहिश पूरी
उदिता: बेटी ओलिंपिक में नाम रोशन करें, इसी ख्वाहिश के साथ पुलिस में कार्यरत पिता यशवीर सिंह ने बेटी को हॉकी ग्राउंड में छोड़ दिया, लेकिन पिता का निधन हो गया। दबाव के बावजूद मां ने बेटी का खेल नहीं छुड़वाया। अब बेटी खिलाड़ी के साथ कोच भी हैं।
ताऊ ने गोद लेकर दिलवाई खेल की ट्रेनिंग
मोनिका मलिक: दो भाइयों के प्रेम की बदौलत आज हॉकी को अनुभवी मोनिका मलिक मिली हैं। चंडीगढ़ पुलिस में कार्यरत पिता से भाई ने गोद लेकर गांव में प्रशिक्षण दिलवाया। दादी चंद्रपति ने ही पहली बार मोनिका के हाथों में स्टिक थमाई थी और बेटे से कहा था कि इसकी तैयारी में कभी कोई कमी नहीं आनी चाहिए।
9 साल की उम्र में थाम ली थी हॉकी स्टिक
शर्मिला देवी: आर्थिक स्थिति ने आगे बढ़ने से रोका। पिता सुरेश कुमार को खेती से इतना नहीं बचता था कि वह बेटी के अभ्यास पर पैसा लगा सके, लेकिन बेटी ने महज 9 साल की उम्र में कह दिया था कि पापा मुझे खिलाओ तो निराश नहीं करूंगी, इसलिए खिलौनों से खेलने की उम्र में स्टिक से दोस्ती कर ली थी, जो जारी रही है।
इधर, पुरुष हॉकी में हरियाणा के दो खिलाड़ी-
जब जूतों के पैसे न थे-
सुमित: गांव के लड़कों को देखकर हॉकी खेलने का मन हुआ था, लेकिन जेब में तो जूते खरीदने के भी पैसे नहीं थे, क्योंकि पिता प्रताप मजदूरी से दो वक्त का खाना की कमा पाते थे। भाई एक मैच में ले गया, जहां जीतने पर पुरस्कार ही जूते मिले थे। आज टीम की मिड फील्ड में जरूरत बन गया है।
अंकल ने दिलवाई स्टिक-
सुरेन्द्र कुमार: भारतीय टीम में डिफेंस के मजबूत खिलाड़ी सुरेन्द्र का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। इसलिए वह क्लास बंक कर स्कूल के ग्राउंड में पहुंच जाता था, लेकिन किसान पिता के पास संसाधन नहीं थे। स्टिक भी पिता के दोस्त ने दिलवाई। उस स्टिक से सुरेन्द्र का जीवन बदल गया।
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