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नई दिल्ली4 मिनट पहलेलेखक: निशा सिन्हा
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थाईलैंड में थॉमस कप में भारत को गोल्ड दिलाने वाले भारतीय बैंडमिंटन टीम से पूरा देश खुश है। इस कप के करीब 70 सालों के इतिहास में कोई भी भारतीय टीम यहां तक नहीं पहुंच पाई थी। ऐसे में जीत का हिस्सा रहे मेधावी प्लेयर लक्ष्य सेन की मां निर्मला सेन के त्याग को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
लक्ष्य को हारना पसंद नहीं। निर्मला बताती हैं कि उसे हारना कभी पसंद नहीं था। घर में अपने बड़े भाई चिराग सेन या पापा से हारने पर वह रोने लगता था। अपने गेम को लेकर वह इस कदर इमोशनल था कि कुछ मैचेज के दौरान बैडमिंटन कोर्ट में भी आंखों में आंसू भर लेता था। मैच देख रहे उसके पेरेंट्स को लगता था कि आंसू के कारण उसे देखने में परेशानी न हो और वह हार न जाए, लेकिन वह हर बार जीत जाता।
बगीचे को बना दिया कोर्ट
अल्मोड़ा का सुंदर घर आज भी निर्मला सेन को याद है। घर का किचन गार्डन, जिसमें वह मौसमी सब्जियां उगाती थीं, वह भूलाए नहीं भूलतीं। सोशल स्टडीज की इस शिक्षिका के कानों में अभी भी स्कूल की घंटी गूंजती है, लेकिन 2017 से वह इन सबसे दूर कर्नाटक में रह रही हैं। बैंडमिंटन चैंपियन प्रकाश पादुकोण के बुलावे पर अपने बेटे को चैंपियन बनाने के लिए वह घर-द्वार छोड़ आईं।
अल्मोड़ा में बैडमिंटन के भीष्म पितामह माने जाते थे लक्ष्य के दादाजी सीएल सेन। दादाजी अपने पैसे से बैडमिंटन के रैकेट खरीदते और प्लेयर्स को देते। लक्ष्य की मां निर्मला को याद है कि किस तरह जब वह दादी के साथ घर के कामों को निबटाती थीं, तो लक्ष्य के दादाजी दोनों पोतों को लेकर बैडमिंटन कोर्ट चले जाते थे। पहली बार जब लक्ष्य कोर्ट गया था, तो उसकी उम्र केवल एक साल थी।
जब कोर्ट में उसके दादा, पापा और अल्मोड़ा के ढेर सारे लड़के बैडमिंटन खेलते वक्त हांफते और पसीना पोछते। कौन जानता था, चटाई पर अपने हाथ-पैर मार रहा नन्हा बालक एक दिन देश को गौरव बन जाएगा। जनरल नॉलेज की किताब में उसका नाम दर्ज हो जाएगा।
लक्ष्य के बड़े भाई चिराग सेन के जन्म के बाद उनकी मां निर्मला जब दूसरी बार प्रेग्नेंट हुईं, तो उन्हें एक बेटी की चाह हुई, लेकिन कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। उनके घर में बैडमिंटन के एक चमकते सितारे ने 16 अगस्त 2001 को जन्म लिया, जिसका नाम लक्ष्य रखा गया। चिराग सेन भी बैडमिंटन की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है।
मां चाहती थीं कि बेटी हो
मां बताती हैं, लक्ष्य बचपन से ही बहुत फोकस्ड था। जिस काम को शुरू करता, वह उसे खत्म करके मानता। अक्सर वह घर में बने किचन गार्डन में मां का हाथ बंटाता, पहाड़ों के छोटे-छोटे पत्थरों को छांटता और क्यारियां बनाता। पौधों के बीच उग आए जंगली घास को तब तक निकालता जब तक वह पूरी तरह साफ न हो जाए। निर्मला बताती हैं कि पहाड़ों में बैडमिंटन कोर्ट बनाना आसान नहीं होता है।
अपने दोनों बेटों की प्रैक्टिस के लिए उनको उन्होंने अपने किचन गार्डन काे बैडमिंटन कोर्ट में बदल दिया। लक्ष्य केवल पांच साल का था, तभी से वह बड़े प्लेयर्स के रैकेट से खेलना चाहता था। उसे अपना छोटा और सिंपल रैकेट पसंद नहीं था।
निर्मला याद करती हैं कि चिराग और लक्ष्य के पापा दोनों बच्चों को इतनी प्रैक्टिस कराते थे कि कई बार मां का दिल पसीज जाता, वो उनको ताने मारकर कहती आप मेरे बच्चों को निचोड़ कर रख देते हैं। वह हंस कर बताती हैं कि इसी कारण से बाद में मैंने इनको प्रैक्टिस करते देखना ही छोड़ दिया था। कुमायुं के ठाकुरों के घर में पैदा हुए ये बच्चे थकते और फिर प्रैक्टिस के लिए उठ खड़े होते। उनके पापा कहते कि असली प्रैक्टिस थकने के बाद ही शुरू होती है।
मां बताती हैं कि प्रकाश पादुकोण ने अपने एक लेख में लिखा है कि जब मैं चौदह-पंद्रह साल की उम्र में जिस तरह से खेल रहा था, लक्ष्य केवल दस-ग्यारह साल की उम्र में वह कमाल कर रहा है। उनकी मदद की वजह से ही लक्ष्य को स्पोर्ट संस्थान (ओजीक्यू) से सपोर्ट मिला। खेलने के अलावा चिराग को गाने सुनने को शौक है। वह अपनी मां को यह भी बताता है कि अगर वह बैडमिंटन नहीं खेलता तो जरूर फुटबॉल प्लेयर होता।
मां का लाड़ला बन गया
बहुत कम ही उम्र का था जब लक्ष्य की प्रैक्टिस पर प्रकाश पादुकोण की नजर गई और उन्होंने बैडमिंटन में उसको निभाने की जिम्मेदारी ही उठा ली। निर्मला बताती हैं कि लक्ष्य के पापा स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया से जुड़े हैं। दोनों ने अपनी नौकरी से VRS ले लिया और 2017 में बंगलोर आ गए।
यहां से प्रकाश पादुकोण ने लक्ष्य की प्रैक्टिस पर निगरानी की। लक्ष्य की मां बताती है कि दीपिका पादुकोण की छोटी बहन अनीशा ने अपने पापा से लक्ष्य की तारीफ सुनने के बाद उसका खेल देखने स्टेडियम जाती थी। अनीशा पादुकोण ने एक बार डिनर के दौरान लक्ष्य की मम्मी निर्मला को बताया था कि पापा उसकी तारीफ करते रहते हैं और कहते हैं कि इतनी छोटी उम्र में उसका प्रदर्शन काबिलेतारीफ है।
बैडमिंटन की वजह से पढ़ाई-लिखाई को लेकर लक्ष्य के लगाव में कमी आई। मां बताती है कि पांचवी-छठीं तक वह खूब पढ़ा लेकिन बाद में उसका ध्यान बंटने लगा। तब मां ही उसे घर में पढ़ाने लगी थी। परीक्षाओं के दौरान दोनों की पढ़ाई डिस्टर्ब नहीं हो इसलिए किचन गार्डन में ही बैडमिंटन कोर्ट बनवा दिया।
पढ़ाई-लिखाई तो मां से ही करता है
मां बताती है कि छोटे शहरों में प्लेयर्स की डायट का कुछ पता नहीं था इसलिए इस बात पर जोर दिया जाता कि दोनों बेटों के खानों में देसी घी का इस्तेमाल हुआ हो। मूंग दाल के स्प्राउट उनको मिले। लक्ष्य को छिलके वाले बादाम पसंद नहीं थे, तो वह बादाम मे छिलके उतार कर देतीं।
जब भी लक्ष्य हाॅस्टल से घर आता या दूसरे देश में मैच खेलकर लौटता तो मां को कहता कि तुम्हारे हाथ जैसी रोटी कहीं नहीं मिलती। वह हंसकर बताती है कि अगर गरम रोटी के साथ उसे भिंडी का भूजिया मिल जाए, तो वह खूब मजे से खाता है।
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