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भास्कर इंटरव्यू: सविता पूनिया ने कहा- लड़कियों को भी खेलने दो; लड़कियां पूरे आत्मविश्वास, डेडिकेशन और ईमानदारी से काम करें

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नई दिल्ली2 मिनट पहले

भारतीय महिला हॉकी टीम की गोलकीपर और उपकप्तान सविता पूनिया ने हरियाणा के सिरसा जिले के जोधकां गांव से निकलकर पूरी दुनिया में नाम रोशन किया। वे ऐसे प्रदेश से आती हैं, जहां बेटियों से ‌‌घर की चारदिवारी में रहने की उम्मीद की जाती है, लेकिन सविता के साथ ऐसा कुछ नहीं था, दादा और पिता से मिले सहयोग के बाद सविता उस मुकाम तक पहुंचीं, जिस पर उनका गांव और देश गर्व करता है।

दैनिक भास्कर और माईएफएम नवरात्रि के पहले दिन सविता पूनिया के संघर्ष की कहानियों को आपके सामने लेकर आए हैं। जानिए कैसे खुद पर विश्वास रखकर और परिवार से मिले सहयोग से सविता ने अपने खेल का लोहा मनवाया…

सवाल- आज आपको पूरा देश ‘द न्यू वॉल’ कह रहा है, जबकि पहले आप हॉकी खिलाड़ी नहीं बनना चाहती थीं, सफर की शुरुआत कैसे हुई?
ऐसा नहीं है कि मुझे हॉकी पसंद नहीं थी। मैं गांव में सरकारी स्कूल में पढ़ती थी। उस टाइम तो 2003 में तो सिरसा में भी खेल का उतना नाम नहीं था। सिर्फ घर में कभी-कभार क्रिकेट का जिक्र होता। जब मैं सातवीं क्लास में थी, तो स्कूल के टीचर दीपचंद सर ने पापा से कहा कि जिले के स्कूल में जूडो, बैडमिंटन, हॉकी के ट्रायल हैं। वहां बेटी को ट्रायल देने के लिए भेजिए। मुझे खुशी हुई क्याेंकि शहर जाने को मिल रहा था। हालांकि सरकारी स्कूल से निकलकर इंग्लिश मीडियम स्कूल में जाने का दबाव भी था। जब दादा जी को बताया तो उन्होंने कहा कि हॉकी खेलना है, तब से फैसला किया कि हॉकी में ही नाम कमाना है।

सवाल- ट्रेनिंग के शुरुआती दिनों में आपको काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उन हालात से किस तरह निपटीं?
मेरा स्वभाव ऐसा था कि मुझे पब्लिक प्लेस में रहना पसंद नही था, लेकिन सोचती थी कि ऐसा कुछ करना है, जिससे माता-पिता खुश हों। उनको मुझे पर गर्व महसूस हो। मैं ऐसा मानती हूं कि सबसे बड़ी ताकत आपका परिवार है। अगर वो आपके साथ है तो आपको हर मुश्किल आसान लगती है।

सवाल- आपके पिता कहते हैं ‘डर के नहीं जीना, जियो तो हौसले से जियो’, ये शब्द आपके अंदर कितना हौसला जगाते हैं?
मैं 2008 में टीम में आई, लेकिन 2011 में पहला मैच खेलने का मौका मिला। ये जो सफर था, थोड़ा मुश्किल था। उस समय आप सिर्फ ट्रेनिंग करते हैं। आपको खेलने को नहीं मिलता। और जब खेलने मिलता है तो ऐसा बोला जाता है कि आपको परफाॅर्म करना है, नहीं तो अगले टूर्नामेंट के लिए मुश्किल हो जाएगी। उस समय दबाव से उबरना नहीं आता था। मैं पापा को फोन करके हमेशा बोलती थी कि यहां सब बहुत मुश्किल है। तब पापा यही लाइनें बोला करते थे, तो अलग तरह की ताकत मिलती। एक पिता ही है, जो अपनी बेटी को मजबूत बना सकता है। पिता ही बेटी का आत्मविश्वास बढ़ा सकता है। इसके अलावा मेरे दादा जी घर की स्ट्रेंथ हैं। उन्होंने घर का माहौल ऐसा बना रखा था कि जहां पर बेटियों को बेटों से भी ऊपर रखा जाए।

सवाल- ओलिंपिक के दौरान पेनल्टी कॉर्नर के सामने आप दीवार बनकर खड़ी रहीं, उस समय दिमाग में क्या चल रहा होता था?
उस समय मैं जो महसूस कर रही थी, शायद अभी उतने अच्छे से न बता पाऊं। वो जो मोमेंट था, टाइम था। वो शायद नर्वस भी कर देता है या खुशी भी देता है। वो सब इमोशन एक साथ हैं।

सवाल- ‘लड़कियों को भी खेलने दो, वो भी उतना ही बेहतरीन प्रदर्शन कर सकती हैं, जितना एक आदमी कर सकता है’, जिन्हें आप ‘खेलने दो’ कहना चाहती हैं, उनके लिए आपका क्या मैसेज है?
मैं पेरेंट्स से ही रिक्वेस्ट करूंगी। मैं भेदभाव वाली बात नहीं कर रही, जितना आप बेटों पर भरोसा करते हैं, उतना ही बेटियों पर भी करें, तो वो आपको दोहरी खुशी देंगी। लड़कियां खुद के लिए आवाज उठाएं और फैसले लें। जिस भी क्षेत्र में जाएं, वहां पूरे आत्मविश्वास, डेडिकेशन और ईमानदारी से काम करें।

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