मीराबाई चानू घर के लिए ढोती थी लकड़ी का गट्ठर: भाई भी नहीं उठा पाते थे इतना वजन, मां बोली-बेटी को वेटलिफ्टर ही बनना था
नई दिल्ली26 मिनट पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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मीराबाई चानू ने कॉमनवेल्थ गेम्स में वेटलिफ्टिंग में गोल्ड जीतकर खुद को महान खिलाड़ियों में स्थापित कर लिया है। प्रधानमंत्री ने ट्वीट कर कहा है कि एक बार मीराबाई ने भारत को फिर से गौरवान्वित होने का अवसर दिया है। 12 वर्ष की उम्र से शुरू हुआ मीराबाई का वेटलिफ्टिंग का सफर कैसा रहा है, इस पर भास्कर वुमन ने टेलिफोन पर मणिपुर के नोंगपॉक सेकमई गांव में उनके परिवार के लोगों से बात की।
घर में मीरबाई को बुलाते हैं एबेम
नोंगपॉक सेकमई इम्फाल से 20-25 किमी दूर है। बर्मिंघन कॉमनवेल्थ गेम्स में जब पोडियम पर मीराबाई को गोल्ड मेडल दिया गया और जन मन गण की धुन बजी तो पूरे नोंकपॉक सेकमई गांव में जश्न मनने लगा। किसी के हाथों में तिरंगा तो किसी के हाथों मेें सात रंगों वाला मणिपुरी फ्लैग। मीराबाई के कजन बिनॉय बताते हैं कि छह भाई बहनों में मीराबाई सबसे छोटी हैं। घर में सब उसे एबेम बुलाते हैं। साइखोम रंजन मित्तई बड़े भाई हैं। इसके बाद रंजना मित्तई, रंजीता मित्तई और नैनाव बहनें हैं। एक और भाई सना मित्तई है।
मीराबाई चानू अपने माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ।
पहले आर्चर बनना चाहती थी, बाद में वेटलिफ्टिंग की ओर मुड़ी
मीराबाई ने नोंग्रेन जूनियर स्कूल से शुरुआती पढ़ाई की। इसके बाद गांव से पांच किमी दूर लमलाई हाई सेकेंडरी स्कूल से 10वीं की परीक्षा पास की। स्कूल के दिनों की दोस्त और गांव की रहनेवाली रौशनी और प्रेमेश्वरी बताती हैं कि मीराबाई पहले आर्चर बनना चाहती थी। वह एक बार आर्चरी सेंटर भी गई, लेकिन उस दिन सेंटर बंद था। उसके बगल में ही कोच वेटलिफ्टर्स को ट्रेनिंग दे रहे थे। उन्हें देखकर उसे वेटलिफ्टिंग के प्रति दिलचस्पी बढ़ी।
मीराबाई चानू के एलबम से पुरानी तस्वीर। इसमें वह अपने दोस्तों के साथ दिख रहीं हैं। (तस्वीर मीराबाई के कजन बिनॉय ने उपलब्ध कराई)
कुंजोरानी जैसी बनना चाहती थी मीराबाई
मीराबाई ने किताबों में भी वेटलिफ्टिंग के बारे में पढ़ा। तब कुंजोरानी देवी के बारे में भी पढ़ती थी। स्कूल में पढ़ाई के समय से ही वह कुंजोरानी को अपना रोल मॉडल मानती थी। उनके जैसा बनना चाहती थी।
मीराबाई चानू के पिता साइखोम कृति और मां साइखोम तोम्बी।
गरीबी के दिन देखे, घर का चूल्हा जले इसलिए लाती थी लकड़ियां
मीराबाई के कजन बिनॉय बताते हैं कि मीराबाई ने स्पोर्ट्स में नाम कमाने से पहले गरीबी के दिन देखे हैं। उसके पिता साइखोम कृति की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी। मां साइखोम तोम्बी हाउस वाइफ हैं। घर चलाने के लिए 20 वर्ष पहले साइखोम कृति ने चाय का स्टॉल भी चलाया। घर में पैसे की तंगी रही। खुद मीराबाई अपनी मां और दोस्तों के साथ जंगल से लकड़ियों का गट्ठर सिर पर रखकर लाती।
मीराबाई की पुरानी तस्वीर जिसमें वह पारंपरिक ड्रेस में दिख रही हैं। (तस्वीर मीराबाई के कजन बिनॉय के सौजन्य से।)
जब दूसरे बच्चे खेलते थे तब कसरत करती थी मीराबाई
स्कूल के दिनों की दोस्त रेशमा और प्रेमिका बताती हैं कि मीराबाई की हाइट 4 फीट 11 इंच है। लेकिन वह भारीभरकम चीजें उठा लेती थी। लकड़ियों का गठ्ठर इतना भारी होता था कि उसके भाई या उसकी उम्र का कोई भी व्यक्ति उठा नहीं पाता था। लेकिन वह पूरे दमखम के साथ इसे उठा लेती थी। पानी से भरी हुई बाल्टी को लेकर पहाड़ पर चढ़ जाती थी। हमसभी देखते रह जाते थे कि वो ये कैसे कर लेती है। कितनी ताकत है उसके अंदर। 10-12 वर्ष की उम्र में ही वह घंटों एक्सरसाइज करती थी। उसकी डाइट अधिक होती थी। लेकिन खाना पारंपरिक ही होता था। मां हमेशा इस बात का ध्यान रखती कि उसके डाइट में कोई कमी न हो।
मीराबाई के घर में लगे मेडल और ट्राफियां।
इम्फाल में ट्रेनिंग लेना शुरू किया
मीराबाई की मां साइखोम तोम्बी बताती हैं कि भारी चीजों को उठाता देखकर लगा कि उसका करियर खेल में बन सकता है। मीराबाई की भी रुचि थी वेटलिफ्टिंग के प्रति। तभी तय हो गया था कि मीराबाई वेटलिफ्टर ही बनेगी। इसके बाद इम्फाल के ही खुलोम्प्पा में ट्रेनिंग लेना शुरू किया। मीराबाई का मौसेरा भाई जीवन मित्तई शुरू में उसे लेकर इम्फाल जाता। वहां दो ट्रेनर ब्रोजेन और अनीता चानू ने उसे प्रशिक्षण देना शुरू किया।
मीराबाई चानू के पदकों के जीतने का सिलसिला जारी है।
बांसों के गठ्ठर से होती थी ट्रेनिंग
शुरुआती दिनों में इम्फाल में मीराबाई की कोच अनिता चानू ने बांस के गट्ठर से प्रशिक्षण देना शुरू किया। वह अलग-अलग टेक्निक से ट्रेनिंग देतीं। बांसों के बोझ को ढोकर लाना होता ताकि इससे शरीर मजबूत हो सके। कुछ ही महीनों में इसका असर दिखने लगा। धीरे-धीरे मीराबाई के खेल में निखार आने लगा। बाद में जिस कुंजोरानी देवी को मीराबाई ने रोल मॉडल माना था, वही उसकी कोच बनीं।
ट्रक वालों से लिफ्ट लेकर जाती थी इम्फाल
मीराबाई के ही एक कजन महेश साइखोम बताते हैं कि अपने गांव नोंगपॉक सेकमई से वह हर दिन 20 किमी की दूरी तय करके ट्रेनिंग के लिए इम्फाल जाती थी। कई बार पैसे नहीं होते थे। मजबूरी में वह ट्रक वालों से लिफ्ट लेती थी। कभी उसने प्रैक्टिस मिस नहीं किया।
मीराबाई चानू के गांव नोंगपॉक सेकमई में बना नया घर। अब मीराबाई का परिवार इसी घर में रहता है।
अब बन गया है पक्का घर
मीराबाई के पहले वाले घर की जगह नया घर बन गया है। बरमिंघम में गोल्ड मेडल जीतने के बाद पूरे घर को सजाने की तैयारी चल रही है। बिनॉय बताते हैं कि एक समय था जब मीराबाई के माता-पिता ने गरीबी में जीवन जीया, लेकिन अब उनकी बेटी सौभाग्य बन गई है।
तस्वीर गोल्ड कोस्ट 2018 कॉमनवेल्थ गेम्स की है जब मीराबाई ने गोल्ड मेडल जीता था। यह दूसरी बार है जब बर्मिंघम में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स में मीराबाई ने गोल्ड जीता है।
घरों में सना मही की होती है पूजा
मित्तई समुदाय में घरों में सना मही की पूजा होती है। ये एक तरह से कुलदेवता की पूजा है। सुबह-शाम पूजा की जाती है। वहीं साल में एक बार मई में इबोदुगखम्लांबा की पूजा होती है। घर से बाहर जाने से पहले अनिवार्य रूप से यहां प्रार्थना की जाती है। बर्मिंघम जाने से पहले मीराबाई ने भी यहां प्रार्थना की थी।
गांव में लड़कियां बुनती हैं कपड़े
मीराबाई के गांव में अधिकतर लड़कियां कपड़े बुनती हैं। खासकर फुल साड़ी और सिल्क की साड़ी तैयार करती हैं। लड़कियां लुंगी भी तैयार करती हैं जिसे वो पहनती हैं। शादी से पहले ज्यादातर लड़कियां इस काम में लगती हैं।
गोल्ड जीतने के बाद बर्मिंघम में मीराबाई चानू।
पेरिस ओलिंपिक के बाद करेंगी शादी
शादी के सवाल पर मीराबाई के परिवार वाले कहते हैं कि अब तो पेरिस ओलिंपिक का इंतजार है। 2024 ओलिंपिक में गोल्ड मेडल जीतना उसका सपना है। इसके बाद मीराबाई की शादी करेंगे।
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